Nauli Kriya
नौली क्रिया
अनुक्रम
15.5- नौलि (लौलिकी) षटकर्मो में शुद्धिकरण की चौथी प्रक्रिया है। पिछली इकार्इ में धौति के प्रकारों में आपने अग्निसार क्रिया का अध्ययन किया। नौलि क्रिया अग्निसार का ही एक प्रकार है या यूँ कहे कि नौलि क्रिया अग्निसार अन्त: धौति की उच्च अभ्यास है। जठराग्नि को बढ़ाने वाली इस क्रिया में उदरगत मॉसपेशियों की मालिश होती है या पेट की समस्त मांसपेशियों की क्रियाशीलता त्वरित गति से बढ़ती है। महर्षि घेरण्ड ने नौलि की क्रियाविधि व लाभों को समझाते हुए कहा है। अमन्दहवेगेन तुन्द्रि, भामयेदुभपाष्र्वरयो सर्वरोगान्निहन्तीनह देहानलविवर्द्धनम् घे0सं0 1/52 अर्थात उदर को दोनों पाष्र्वो में अत्यतन्त वेगपूर्वक घुमाना चाहिए। यह लौलिकी, अर्थात जठराग्नि का उद्धीपक है। भलर्इ महर्षि घेरण्ड ने नौलि क्रिया की विधि में उदर को दोनों पाष्र्वो में घुमाने की बात कही है पर अध्ययन की सुविधा –ष्टि ने नौलि के निम्नं प्रकार की विधियों को समझना उचित है। 15.5.1 सामान्य या मध्यनम नौलि – इस नौलि में सामान्य रूप से पेट की मॉसपेशियों को समेट कर कुछ देर सिकोड कर रखते है। क्रियाविधि 1. दोनों पैरो में कन्धे की दूरी के बराबर जगह बनाये। 2. दोनों हाथों को घुटने पर रखकर थोड़ा झुक जाये। 3. पूरा “वास का रेचक कीजिए। 4. पेट को अन्दर की ओर खींच लीजिए। 5. दोनों हाथों से घुटने पर हल्का दबाब डाले उदर की मांसपेशियॉं बीच में स्वत: हो जायेगी। 6. यह मध्यम या सामान्य नौलि की एक आवृति है। 15.5.2 वाम नौलि – वाम अर्थात बायी और उदरगत मॉंसपेशियों के समूह को ले जाना वाम नौलि कहलाती है। क्रियाविधि – 1. दोनों पैरों में कन्धों की दूरी के बराबर जगह बनाये। 2. दोनों हाथों को घुटनों या जांघों पर रखकर थोड़ा झुक जाइये। 3. फिर उपरोक्त मध्यम नौलि कीजिए। 4. उदर की दाहिनी मॉसपेशियों को ढ़ीला कर दीजिए। 5. तदपश्चात् उदर की बायीं ओर की मांसपेशियों को संकुचित करें। 6. उदरगत मॉंसपेशियों का पिण्डी बायी और स्वत: आ जायेगा। 7. यह बाम नौलि की एक आवृति है। 15.5.3 दक्षिण नौलि – दक्षिण अर्थात दाहिने ओर उदरगत मांसपेशियों के समूह को ले जाना दक्षिण नौलि कहलाता है। क्रियाविधि- 1. दोनों पैरों में कन्धों की दूरी के बराबर जगह बनाइये। 2. दोनों हाथों की घुटनों पर या जंघाओं पर रख लीजिए। 3. सामान्य नौलि की अवस्थाओ में आये। 4. उदरगत बाये भाग की मांसपेशियों की अन्दर की ओर संकुचित करें। 5. स्वगत मांसपेशियों का पिण्डी संकुचित होकर पेट के दाहिने ओर आ जायेगा। 6. यह दक्षिण नौलि की एक आवृति है। 15.5.4 भ्रमर नौलि – जब उपरोक्त तीनों नौलियों सामान्य, वाम व दक्षिण को एक साथ जोड़ देते है तो वह भ्रमर नौलि कहलाती है। इस नौलि की प्रक्रिया में गुरू के निर्देशानुसार 5-6 बार घड़ी की सुर्इ की दिशा में व 5-6 बार उसकी विपरीत दिशा में उदरगत मांसपेशियों को घुमाते है। इसलिए इसे भ्रमर नौलि के नाम से जाना जाता है। क्रियाविधि 1. सर्वप्रथम सामान्य (मध्यम) नौलि कीजिए। 2. तद्पश्चात वाम नौलि कीजिए। 3. फिर दक्षिण नौलि कीजिए। 4. जब वेगपूर्वक उपरोक्त क्रिया करेंगे तो भ्रमर नौलि स्वत: ही होने लगेगी। लाभ – 1. नौलि क्रिया से कुण्डलीनी शक्ति जागृत होती है। 2. उदरगत मांसपेशियों की क्रियाशीलता बढ़ती है तथा वहॉं रक्त् का संचार तीव्र होता है। 3. मणिपुर चक्र की जागृति होती है। 4. तन्त्रिका तन्त्र के साथ-साथ शिराओं पर इस नौलि क्रिया का प्रभाव पड़ता है। 5. रक्त् परिसंचरण संस्थान पर इसका सार्थक प्रभाव पड़ता है। 6. भूख बढ़ती है जठराग्नि बढ़ती है। 7. अग्नाशय पर इसका सार्थक प्रभाव पड़ता है इसलिए मधुमेह में भी लाभकारी है। सावधानियॉं- 1. नौलि का अभ्यास अगर पेट में दर्द हो तो न करें। 2. हार्निया, पथरी में यह अभ्यास वर्जित है। 3. उच्च रक्त चाप, पेप्टिक अल्सर, एसिडिटी के रोगी इस अभ्यास को नहीं करें। 4. गर्भवती महिलाये इस अभ्यास को बिल्कुल न करें। 5. वस्तुत: यौगिक षटकर्म गुरू के निर्देश में ही किये जाते है। इस बात का विशेष ध्यान रखे। 6. भोजन के बाद इस अभ्यास को नहीं करें। 7. नौलि क्रिया से पहले उड्डयान बन्ध और अग्निसार का अभ्यास कर लीजिए।
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ReplyDeleteकोरोना
Thanks
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